Sunday, September 30, 2012

भाव के पात्र

उछ्ल  कर उच्च कभी सोल्लास
थिरक कर भर चांचल्य अपार
धीर सी  कभी ध्यान में मग्न
कुंठिता लज्जा सी साकार

मृदुल गुंजन सी गाती गान
बजाती कल कल  कर करताल
नृत्य बल खा खा करती, देख !
कभी भ्रू कुंचित कर कुछ भाल

वीचि -मालाओ में कर बद्ध
राशि के राशि अपरिमित भाव
पहुचती सरिता अचल समीप
चाहती अपना स्पर्श -प्रभाव

शैल से टक्कर खा खा किन्तु
बिखरती लहरें भाव समेत
ह्रदय के टुकड़े कर तत्काल
कठिन पीड़ा से बनी अचेत

नदी का सुनकर कातर नाद

ह्रदय पिघलते  और विकम्पित गात्र !
कोई जाकर सरिता को समझाए
उपल भी कही भाव के पात्र ?

26 comments:

  1. कुंठिता लज्जा सी साकार

    कुंठिता भला क्यों ? अपनी पीड़ा से कुंठित है ?

    वैसे लोग कहते हैं कि पत्थर में भी भला कोई भाव होता है ... लेकिन मुझे लगता है कि उसके मौन को ही हम संवेदन हीनता मान लेते हैं :):)

    वैसे नदी को क्या समझाना ..... बहुत समझदार होती है नदी ... चाहे जितनी भी बाधा आए निरंतर अपनी मंज़िल की ओर अग्रसर रहती है ....

    हमेशा की तरह भाव प्रवण रचना ...

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  2. भ्रू कुंचित--त्योरिया चढ़ाना या भाव -भंगिमा बनाना
    वीचि -मालाओ------लहरों की माला
    गात्र ----गात या शरीर

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  3. हर लहर की अपनी कहानी
    कहीं चंचल कहीं गंभीर
    कहीं व्यथित कहीं अधीर
    छुपी हुई है हर में पीर

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  4. शायद इसलिए स्त्री की उपमा सरिता से की जाती है .....

    कमाल की छंद बद्ध रचना .....:))

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  5. हम्म...हर कोई अपने स्वभाव से मजबूर होता है ..ऐसे ही सरिता भी..कितनी भी ठोकरे खाए,पत्थरों से टकराए, कोई कितना भी समझाये पर अपना स्वभाव नहीं छोड़ पाती.
    बेहद सुन्दर भावों से रची हुई संवेदनशील रचना है.

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  6. कितना सच लिखा है ...नदी की राह तो अपने समुद्र मे मिलना है ....राह मे आने वाले पत्थरों से उसे क्या मिलेगा दुख के सिवा ....किन्तु फिर भी उसकी जिजीविषा कितनी प्रबल है .....आगे बढ़े बिना मानती कहाँ है .....छोड़ जाती है अपनी लहरों को उन पत्थरों को समझाने ....और टूटते हैं धीरे धीरे पत्थर समा जाते हैं रेत बन कर नदी की .... या ..एक दिन कोई उन्हें ले जाता है मंदिर में स्थापित पूजने ...बस हम जीवन में क्या देख रहे हैं ...कैसे देख रहें हैं ...सब उसी पर निर्भर करता है ...!!
    बहुत सुन्दर सुचारू छंद बद्ध रचना ...!!

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  7. सरिता के व्यवहार को बखूबी शब्दों में ढालकर व्यक्त किया है आपने...

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  8. सरिता और शैल ,दोनों में से कौन ठोकर सा बन जाता है और कौन बिखर जाता है ये एक अबूझ पहेली सी ही लगती है ... शब्दों की निर्झर सरिता तो बहुत मोहक लगी हमेशा की तरह ..-:)

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  9. बेहद सुन्दर भावों से रची हुई संवेदनशील रचना !

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  10. बहुत ही सुन्दर व्याख्या ... नदी के रूप की... और स्वभाव की...!!
    उसकी शालीनता .... और इच्छाओं का वर्णन भी खूब किया .... :)
    और उसकी पत्थरों से टकरा टकरा कर छिन्न हो जाने वाली पीड़ा को भी बखूबी आपने दर्शाया है.... कहाँ पता उसे की "भाव के पात्र कौन हैं और कौन नहीं...... वो तो अपनी शालीनता और मृदुलता के साथ आगे बढ़ना चाहती है और सबके ह्रदय को जीतना चाहती है"

    बहुत ही सुन्दर रचना है... सुन्दर शब्द चयन.... भावनात्मक अभिव्यक्ति...

    सादर

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  11. बहुत ही सुन्दर प्रवाह, नदी की तरह, कल कल करता।

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  12. बहुत सुन्दर आशीषजी ......इस पहेली को तो आज तक कोई नहीं सुलझा पाया ....कि दोनों कि मंशा क्या है ...एक कविता याद आ रही अपनी ..कुछ ऐसा ही ख्याल उसमें था

    मौज का साहिल से रह रहके टकरा जाना
    ज़ब्त किसमें है...यह होड़ लगी हो जैसे -
    यह है दीवानगी लहरों की...या बेरुखी साहिल की....
    दोनों के जिस्म तार तार...रूहें छलनी हों जैसे...
    चोट ऐसी जो एक उम्र तक दिखाई दे,
    टुकड़ों टुकड़ों में हर सिम्त बही हो जैसे...
    फिर भी मौजें हैं की दीवानावार साहिल से ,
    अब भी टकराती हैं...टकराके पलट जाती हैं ....
    इश्क का यह भी एक अंदाज़े-बयान देखा है ,
    चोट पहुँचाना ही ...
    जैसे शर्ते आशनाई है !!!!

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  13. वीचि -मालाओ में कर बद्ध
    राशि के राशि अपरिमित भाव
    पहुचती सरिता अचल समीप
    चाहती अपना स्पर्श -प्रभाव

    शैल से टक्कर खा खा किन्तु
    बिखरती लहरें भाव समेत
    ह्रदय के टुकड़े कर तत्काल
    कठिन पीड़ा से बनी अचेत
    कमाल है.... नदी का दर्द कैसा उभर के आया है...कमाल ही है.

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  14. आपके छंद के लिए मेरे मन में वो शब्द ही नहीं आ पाते जो कह पाऊं ..
    वाह रे नदी... कल कल करती हुई.. बहती है..
    कभी पत्थरों से टकराती है तो
    कभी चुप चाप शांत जल समतल में बहती चली जाती है..
    कौन समझे इसके भाव को...:))

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  15. bahut sundar abhiwyakti ....nadi ka drd ubhra hai in panktiyon mein ...

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  16. कठिन लिखsला मालिक। समझे बदे, दुई दाईं पढ़े के पड़ल। लेकिन एक बात हौ, मस्त लिखले हउवा। छंद में रियाज कठिन हौ, अभिव्यक्ति में सफलता मिल जाय तs सच्चो मजा आ जाला। नदी पत्थरे से टकरावे ई कौनो जरूरी ना हौ। अउर शुरू में कुंठित पर आपत्ति भयल, जवाब नाहीं देहला?:)

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  17. मैं आजकल कठिन से कठिनतम शब्द एकत्र कर रहा हूँ | फिर एक कविता लिखूंगा उन्हें मिलाते हुए | फिर आपके सामने प्रस्तुत करूंगा | जब आप सर खुजायेंगे तब मैं मन ही मन मुदित होऊँगा | ( पर ऐसा होने वाला नहीं है ,मैं जानता हूँ | आप उसे भी डिकोड कर लेंगे ) | बेचारा मैं , हिंदी अज्ञानी |

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  18. लाजवाब ! आपकी रचना के शब्दों के मोहपाश में बांध चूका हूँ. आभार

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  19. लगता है आप शब्दों से खेलते हैं। आपकी कविता की अंतिम पंक्तियां और प्रश्न देखकर अपनी कविता की कुछ पंक्तियां याद आ गईं, शायद वही आपके इस प्रश्न का मेरा जवाब है
    नीर बरसते झम-झम झम झम
    बादल अम्बर के विरहाकुल
    टकरा-टकरा कर उपलों से
    तट छूने को लहरें व्याकुल
    कैसे पार लगेगी नौका
    हैं धाराएं प्रतिकूल यहां
    ह सुख की शीतल छांव कहां
    चुभते पग-पग पर शूल यहां

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  20. मुख में मधु-बूंदे सी पड़ जाती है आपको पढ़कर .

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  21. आप की कविता पढ़ कर समझ में नहीं आता कि इस की प्रशंसा के लिये उपयुक्त शब्द कहाँ से लाऊं
    और ये भी एहसास होता है कि फिर से हिंदी पढ़ना आरंभ करूँ क्योंकि स्वयं को अज्ञानी महसूस करती हूँ

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  22. शैल से टक्कर खा खा किन्तु
    बिखरती लहरें भाव समेत
    ह्रदय के टुकड़े कर तत्काल
    कठिन पीड़ा से बनी अचेत ......नदी का पानी/ एक बहता हुआ सन्नाटा जो अपने अंदर कितनी बातें छुपाये हुए हैं ..सुन्दर रचना .बेहतरीन शब्द चयन ..और इस तरह के लिखे तो आप आशीष महारथी है ..बहुत बढ़िया

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  23. पिछले २ सालों की तरह इस साल भी ब्लॉग बुलेटिन पर रश्मि प्रभा जी प्रस्तुत कर रही है अवलोकन २०१३ !!
    कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !
    ब्लॉग बुलेटिन इस खास संस्करण के अंतर्गत आज की बुलेटिन प्रतिभाओं की कमी नहीं 2013 (5) मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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